सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने हाल ही में सवाल उठाया कि क्या 2013 में लागू हुए लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम ने वास्तव में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सफलता हासिल की है। उनका कहना है कि अगर यह कानून प्रभावी होता, तो बिहार जैसे राज्यों में भ्रष्टाचार के उदाहरण सामने नहीं आते। बिहार में, मात्र 800 रुपये में स्थाई निवास प्रमाण पत्र, 3,000 रुपये में ईडब्ल्यूएस प्रमाण पत्र, 1,000 रुपये में आधार कार्ड, और 2,000 रुपये में राशन कार्ड बनवाया जा सकता है। न केवल बिहार, बल्कि अन्य राज्यों में भी पैसे देकर कोई भी सरकारी प्रमाण पत्र आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। यह स्थिति इस कानून की विफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाती है।
अश्वनी उपाध्याय ने तंज कसते हुए कहा, “डॉक्टर बदलने से बीमारी ठीक नहीं होती, दवा बदलने से होती है। करोड़ों रुपये खर्च कर लोकपाल और लोकायुक्त के कार्यालय स्थापित किए गए, लेकिन भ्रष्टाचार जस का तस बना रहा। लोग 10,000 रुपये देकर फर्जी शिकायत दर्ज करा सकते हैं, इतने ही रुपये में प्राथमिकी दर्ज हो जाती है, और थोड़े और पैसे देकर गवाह खड़े किए जा सकते हैं। 50,000 रुपये में जांच अधिकारी चार्जशीट दाखिल कर देता है, 1 लाख रुपये में वकील मिल जाता है, और 4-5 लाख रुपये में फैसला भी खरीदा जा सकता है। कुल मिलाकर, 10 लाख रुपये में किसी को चोर या डाकू साबित किया जा सकता है।”
इसके अलावा, उपाध्याय ने अन्ना हजारे आंदोलन की विडंबना पर भी प्रकाश डाला। इस आंदोलन के दौरान लोकपाल की मांग करने वाले कई लोग, जैसे अरविंद केजरीवाल, स्वयं भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं। एक वीडियो में केजरीवाल को यह कहते सुना गया कि अगर कोई वोट के लिए पैसे दे, तो उसे ले लेना चाहिए, लेकिन वोट उनकी पार्टी को देना। यह बयान इस बात का संकेत देता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने वाले लोग अप्रत्यक्ष रूप से इसे बढ़ावा दे रहे हैं।
आखिर, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम लागू होने के बावजूद भ्रष्टाचार क्यों नहीं रुक रहा? इस अधिनियम में ऐसी कौन सी कमियां हैं जो इसे प्रभावी होने से रोक रही हैं? आइए, इसकी प्रमुख कमियों का विस्तार से विश्लेषण करें।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम की कमियां
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 का उद्देश्य एक स्वतंत्र और शक्तिशाली संस्था, लोकपाल, की स्थापना करना था, जो उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर सके, जबकि लोकायुक्त राज्यों में समान भूमिका निभाएंगे। हालांकि, लागू होने के एक दशक से अधिक समय बाद भी यह भ्रष्टाचार को रोकने में असफल रहा है। निम्नलिखित इसकी प्रमुख कमियां हैं:
लोकपाल की नियुक्ति में देरी और स्वतंत्रता का अभाव
अधिनियम लागू होने के बाद कई वर्षों तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई। 2013 में कानून बनने के बावजूद, पहला लोकपाल 2019 में नियुक्त किया गया, जो कार्यान्वयन में गंभीर लापरवाही को दर्शाता है। इसके अलावा, लोकपाल की चयन प्रक्रिया में सरकार का दबदबा है। चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, और अन्य सरकारी प्रतिनिधियों का वर्चस्व होने के कारण लोकपाल की स्वतंत्रता संदिग्ध है। यह पक्षपातपूर्ण प्रक्रिया लोकपाल को सरकार के प्रभाव से मुक्त नहीं होने देती, जिसके चलते यह भ्रष्टाचार के मामलों में निष्पक्ष जांच करने में असमर्थ रहा है।
सीमित अधिकार और जांच का दायरा
लोकपाल का अधिकार क्षेत्र केवल उच्च सरकारी अधिकारियों, जैसे मंत्रियों, सांसदों, और नौकरशाहों तक सीमित है। इसमें निजी क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठन, या अन्य गैर-सरकारी संस्थाएं शामिल नहीं हैं, जो भ्रष्टाचार के बड़े स्रोत हो सकते हैं। इसके अलावा, लोकपाल को स्वतः संज्ञान लेने की शक्ति नहीं है, जिसका अर्थ है कि यह केवल प्राप्त शिकायतों पर ही कार्रवाई कर सकता है। यह सीमा इसे सक्रिय रूप से भ्रष्टाचार की जांच शुरू करने से रोकती है। साथ ही, लोकपाल के पास स्वतंत्र जांच एजेंसी नहीं है, और यह सीबीआई या अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर करता है, जो स्वयं सरकार के नियंत्रण में हैं।
लोकायुक्तों की स्थिति में असमानता
लोकायुक्तों की स्थापना और कार्यप्रणाली राज्यों पर निर्भर है, जिसके कारण विभिन्न राज्यों में उनकी प्रभावशीलता में भारी अंतर है। कई राज्यों ने लोकायुक्त की नियुक्ति में देरी की या इसे सीमित शक्तियों के साथ लागू किया। उदाहरण के लिए, कुछ राज्यों में लोकायुक्त केवल सलाहकारी भूमिका तक सीमित हैं और उनके पास बाध्यकारी आदेश देने की शक्ति नहीं है। यह असमानता भ्रष्टाचार के खिलाफ एक समान राष्ट्रीय नीति को लागू करने में बाधा उत्पन्न करती है।
शिकायत प्रक्रिया में जटिलता
लोकपाल के पास शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है। शिकायतकर्ता को अपनी पहचान उजागर करनी पड़ती है, जिसके कारण डर के मारे लोग शिकायत करने से हिचकते हैं। इसके अलावा, गलत या झूठी शिकायत करने पर सजा का प्रावधान भी लोगों को शिकायत करने से रोकता है। हालांकि यह प्रावधान दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाया गया था, लेकिन यह भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को हतोत्साहित करता है।
प्रशासनिक और वित्तीय संसाधनों की कमी
लोकपाल और लोकायुक्त संस्थानों को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों का अभाव है। लोकपाल का कार्यालय सीमित कर्मचारियों और अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के साथ काम करता है, जिसके कारण यह बड़े और जटिल भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में प्रभावी नहीं हो पाता। सरकार द्वारा आवंटित बजट भी अपर्याप्त है, जिसके कारण जांच प्रक्रिया में देरी होती है और कई मामले लंबित रहते हैं।
सार्वजनिक जागरूकता और विश्वास की कमी
लोकपाल और लोकायुक्त के प्रति जनता में जागरूकता और विश्वास की कमी है। अधिकांश लोग इस संस्था के कार्य, अधिकार, और शिकायत प्रक्रिया से अनजान हैं। साथ ही, लोकपाल द्वारा अब तक किसी बड़े भ्रष्टाचार के मामले में ठोस कार्रवाई न करने के कारण जनता का विश्वास इस संस्था पर कम हुआ है। यह स्थिति भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन को कमजोर करती है।
नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप
भ्रष्टाचार के कई मामले उच्च स्तरीय राजनेताओं और नौकरशाहों से जुड़े होते हैं, और इन मामलों में जांच को प्रभावित करने के लिए दबाव बनाया जाता है। लोकपाल को अपनी जांच के लिए अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो अक्सर सरकार के दबाव में काम करती हैं। यह नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप लोकपाल की प्रभावशीलता को और कम करता है।
परिणामों की कमी
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम लागू होने के बाद भ्रष्टाचार के मामलों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक में भारत की रैंकिंग में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। लोकपाल द्वारा अब तक कोई बड़ा भ्रष्टाचार का मामला हल नहीं किया गया, जिसके कारण इसकी विश्वसनीयता और प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में कई संरचनात्मक और कार्यान्वयन संबंधी कमियां हैं, जिनके कारण यह भ्रष्टाचार को रोकने में असफल रहा है। इसकी स्वतंत्रता, सीमित अधिकार, जटिल शिकायत प्रक्रिया, और संसाधनों की कमी जैसे मुद्दों ने इसकी प्रभावशीलता को कम किया है। अश्वनी उपाध्याय का कथन कि भ्रष्टाचार जस का तस बना हुआ है, इस अधिनियम की कमजोरियों को रेखांकित करता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी लड़ाई के लिए इस अधिनियम में सुधार की आवश्यकता है, जिसमें स्वतंत्र जांच एजेंसी की स्थापना, लोकपाल की स्वायत्तता को मजबूत करना, और जन जागरूकता बढ़ाना शामिल है। जब तक ये सुधार नहीं किए जाते, लोकपाल और लोकायुक्त भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत हथियार बनने में असमर्थ रहेंगे।